सोमवार, 21 अप्रैल 2014

झूठा ब्लॉगर


अगर सादी-बियाह का न्यौता से आने के बाद कोनो अदमी दुल्हा-दुल्हिन का जिकिर नहीं करके, पकवान का जिकिर करे त समझ जाइये कि आप कोलकाता में हैं. पकवान का जिकिर भी बहुत सीरियसली अऊर एतना सुन्दर-सुन्दर सब्द के माध्यम से कि अगर आप बातचीत में सुरू से सामिल नहीं हैं, तो आपको लगेगा कि कोनो सुन्दरी के सौन्दर्ज का बरनन हो रहा है. आप कोनो निमंत्रन में चले जाइये, आपका आवभगत त जेतना बढिया से होगा ऊ त होबे करेगा, लेकिन चलते टाइम घर का लोग आपसे जरूर पूछेगा – रान्ना केमौन होएछे! (भोजन कैसा बना था). पकवान का सुन्दरता (स्वाद के नाम पर लोग जादातर शुन्दोर सब्द का प्रयोग करते हैं) बंगाल के मसहूर बिसेसन के साथ होता है – भीशौन शुन्दोर रशोगोल्ला छिलो! ‘भीसन’ सब्द का ऐसा इस्तेमाल हम बंगाल में ही देखे.

कुल मिलाकर, कोनो मामूली से मामूली चीज, चाहे बात भी किसी के बरनन से एतना खूबसूरत हो जाता है कि एकीन करना मोस्किल हो जाता है कि ओही चीज के बारे में कहा जा रहा है. असल में एही खूबी कोनो साधारन अदमी को कबि बना देता है. रोज निकलने अऊर डूबने वाला चाँद त सबलोग देखता है, बाकी ऊ चाँद में रोटी, कटोरा, अठन्नी, महबूबा त कोनो कबि चाहे सायर को ही देखाई देता है.

चचा गालिब का एगो मसहूर शे’र है:
ज़िक्र उस परीवश का, और फिर बयान अपना,
बन गया रक़ीब आख़िर, जो था राज़दान अपना.

माने पहिले त ऊ सुन्दरी परी के जइसा अऊर उसपर उसका सुन्दरता का बखान एतना सुन्दर कि दोस्त भी दुस्मन बन गया. सायद एही से लोग कहता है कि अदमी प्यार में सायर बन जाता है. जिसका सुन्दरता से दूर-दूर तक कोनो वास्ता नहीं, उसका खूबसूरती भी अइसा बयान करता है कि ऊ दुनिया का सबसे सुन्दर लड़की देखाई देने लगती है.

मगर सुन्दरता का बात खाली काहे कहते हैं. कभी-कभी कोनो घटना के बारे में कोई लोग अइसा फोटो खींच देता है कि लगता है आप आँख से देख रहे हैं. कोनो मामूली सा घटना भी किसी के सब्द का जादू से निखरकर एतना सुन्दर हो जाता है कि आपको अपना नजर पर सक होने लगता है कि धत्त ई त हम भी देखे थे, सच्चो एतना सुन्दर था! अऊर जो नहीं देखे रहता है, ऊ समझता है कि झूठ बोलता है, भला अइसन कहीं हो सकता है.

अपना ब्लॉग पर का मालूम केतना छोटा-बड़ा घटना हम आपलोग के साथ बाँटे होंगे. बहुत सा लोग ऊ घटना के बारे में जानकर खुस हुआ, चकित हुआ, मुग्ध हुआ, भावुक हुआ, नाराज हुआ, प्रेरित हुआ, दुखी हुआ, गौरवांवित हुआ, खीझ गया, लेकिन साथे-साथ अइसा भी लोग हमको मिला जो मुस्कुरा दिया अऊर बोला कि झूठमूठ का कहानी बनाता है. ई सब घटना इन्हीं के साथ काहे घटता है, हमरे साथ त कभी नहीं घटा!

अब हम का बताएँ. हमरे बात करने का तरीका में कोनो खोट रहा होगा कि सच्चो बात लोग को झूठ मालूम होता है. हम ऊ लोग से बिबाद, चाहे तर्क नहीं करते हैं, न कोनो सफाई देते हैं कि ई घटना सच है. बस चुपचाप आसमान के तरफ नजर उठाकर परमात्मा का सुक्रिया अदा करते हैं जो हमको उस घटना का पात्र या साक्षी बनाया अऊर अपने पूर्बज लोग को प्रनाम करते हैं कि उनके आसीस के बदौलत हमरे कलम में सचाई को ईमानदारी से बयान करने का ताकत मिला.

चार साल पहिले 21 अप्रैल 2010 में एगो बिहारी बोली में बतियाने वाला मामूली सा अदमी ब्लॉगर बनने का सपना लेकर एगो यात्रा सुरू किया था. आज चार साल हो गया अऊर पीछे पलट कर देखने पर बुझाता है कि बात-बात में एतना लम्बा रास्ता तय हो गया! परमात्मा से एही प्रार्थना है कि हमरे कलम का जोर ऐसहिं बनाए रखे कि लोग ई सोचने पर मजबूर हो जाए कि – चार साल हो गया ई अदमी को, झूट्ठा खिस्सा गढते हुये!!

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

हाय गजब कहीं तारा टूटा


अब त इयादो नहीं है कि आखरी बार जादू का सो कब देखे थे. बाकी जादू त जादूए होता है. एकदम नजर बाँध लेता है. एतना त समझ में आता है कि ई सब कोनो चमत्कार नहीं है, सब हाथ का खेला है, तइयो ई खेला में गजब का आनन्द आता है. जेतने अबिस्बसनीय, ओतने सच.

आजकल हमरे इधर भी एगो जादू का धूम मचा हुआ है - जादूगर बैताल. हमरा ऑफिस का इस्टाफ अऊर मकान मालिक का लइका भी जिद करने लगा कि चलिये देखने. अब हमरे पास त ऑफिस के बाद ब्लॉग पढने अऊर फेसबुक पर बतकुच्चन करने के अलावा कोनो काम त होता नहीं है. हम मान गये. छोटा थे त हमरे दादा जी अऊर बाद में हमरे मँझले फूफा जी हमसब बच्चा लोग को ले जाते थे सर्कस देखाने. हमहूँ सोचे कि जादू देखने के बहाने ऊ पुराना टाइम को फिर से जीने का अबसर मिलेगा. रंगीन तम्बू, प्लास्टिक का कुर्सी, चमचमाता हुआ इस्टेज, जोर-जोर से बजता हुआ गाना.

जादू का सो सुरू हुआ. बगले के गाँव का जादूगर था. बहुत कम उमर का 25-26 साल से जादा नहीं था. मगर बुझाता था कि बहुत सा सो कर चुका था, इसलिये उसका आत्मबिस्वास देखने लायक था. गाँव का सो था, इसलिये उसके जादू में लड़की लोग नहीं थी अऊर उसका असिस्टेंट सब उसी का भाई सब था. जादूगर के पिताजी इस्कूल के रिटायर्ड मास्टर थे अऊर गेट पर खड़ा होकर आने जाने वाले का स्वागत कर रहे थे. जादूगर अपना सो देखाने के बाद सब दर्सक से अनुरोध किया कि आजकल जादू, सर्कस त लोग सिनेमा चाहे टीवी का पर्दा पर देखना पसन्द करता है. ई टेक्नोलॉजी के कारन हमारा सांस्कृतिक धरोहर को बहुत नुकसान हुआ है. ई बात ऊ एतना मन से बोला कि मन भर आया!

बहुत लो बजट का सो होने के बाबजूद भी लगा कि जइसे ऊ जादू हमरे दिमाग में समा गया है अऊर हम जादू में गोता खाते हुए समय में बहुत पीछे चले गए. पटना का हार्डिंग पार्क में हमलोग सर्कस देखने जाते थे. तरह-तरह का जंगली जानवर का तमासा, सुन्दर सुन्दर लड़कियों का खेला अऊर नाटा-नाटा जोकर का मजाक. जबतक अगिला खेला चालू होता, तबतक जोकर का मजाक, आपस में लड़ाई, फटकारने वाला लकड़ी का तख्ता से मार-पीट, पीठ से पीठ जोड़कर उछलते हुये गोल चक्कर लगाना, आँख से, पीछे से पानी निकालना, एक हाथ से दोसरा हाथ में एक बार में का मालूम केतना गेन्दा उछालना, बिना गिराये हुए. राज कपूर का सबसे प्यारा सिनेमा एही सरकस पर आधारित था. अऊर ऊ जो बोल गए आखिर में ऊ आझो लोग मोहावरा के तरह इस्तेमाल करता है – द शो मस्ट गो ऑन!!


मगर सर्कस का जो हालत आज है ओही हालत राज कपूर साहब के “मेरा नाम जोकर” का हुआ. अब्बास साहब, जो राज कपूर के सब सिनेमा का कहानी लिखे थे, उनको भी ई बर्दास्त नहीं हुआ अऊर बोले कि एगो हिट फिलिम जरूर लिखेंगे ऊ. फिलिम लिखे “बॉबी” जो सुपर हिट हुआ. हम भी कहाँ से कहाँ भटक गये. गुलज़ार साहब कहते हैं कि इंसानी दिमाग भी ऐसने एगो सरकस के तरह है

एक तम्बू लगा है सरकस का,
बाज़ीगर झूलते ही रहते हैं
ज़हन ख़ाली कभी नहीं रहता!

अइसने एगो तम्बू लगा हुआ था साल 1994 में. उस समय भी हम बिहार के एगो गाँव में पोस्टेड थे अऊर ऊ गाँव में आया था एगो थियेटर. सब स्टाफ लोग मिलकर पूछा कि सर चलियेगा देखने. थियेटर बहुत बदनाम माना जाता था, इसलिये ऊ लोग डरते-डरते पूछा. हम पूछे कि का होता है इसमें. तब पता चला कि इसमें गाना बजाना होता है, नाटक-नौटंकी होता है.


अचानक हमरे मन में जाने का आया, हम तुरत तैयार हो गए. टिकट लेकर रात को खा पीकर तम्बू में जम गये. गाना सुरू हुआ, लड़की सब मेक-अप में आकर गाना  रही थी अऊर लड़का—लड़की मिलकर जुगल गीत भी गाते थे. अऊर बहुत सुन्दर गाना से भरपूर जबर्दस्त नाटक भी था उसमें. गाना से खुस होकर लोग ईनाम में रुपया भेंट करता था अऊर उनका नाम घोसित किया जाता था. कुछ लोग मजाक में नोट अपना जेब से देता था अऊर नाम अपना दोस्त का बता देता था. जब उनका दोस्त के नाम के साथ ईनाम का घोसना होता था सबलोग हँसने लगता था अऊर ऊ भाई साहब गरियाते हुए भुनभुनाते रहते थे. असल में लाउडिस्पीकर पर उनका नाम उनके घर तक सुनाई देता था अऊर घरे जाने पर घरवाली से पिटाई का खतरा भी था.

हम चुपचाप गाना-बजाना अऊर नाटक देख रहे थे. बाकी हमरे दिमाग में अलगे एगो खेला चल रहा था. लोग सीटी बजा रहा था, ताली बजा रहा था, बाह-बाह कर रहा था, मगर हम ऊ लिपिस्टिक से सना मुँह लिये हुये गीत गाने वाली एगो लड़की को देख रहे थे. जेतना अदा से ऊ गा रही थी

रहेगा इश्क़ तेरा ख़ाक में मिलाके मुझे,
हुए हैं इब्तिदा में रंज, इंतिहाँ के मुझे!

उसका चेहरा देखकर ई बुझाइये नहीं रहा था कि ऊ किसके लिये एतना बिभोर होकर गाना गा रही है. जबकि देखने वाला हर अदमी एही समझ रहा था कि ऊ उसी के लिये ई गाना गा रही है. हमरे दिमाग में का मालूम कऊन सोच डूब-उतरा रहा था. हमको ऊ लड़की हीरा बाई लग रही थी जो पता नहीं अपने कऊन हीरामन के लिये गाना गा रही थी. कोनो हीरामन था भी कि नहीं ऊ दर्सक मण्डली में.

थियेटर में बइठे हुये हमारे सामने फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ जी का ‘तीसरी कसम’ घूम गया. जब हम देखकर निकले, त हमरे पीछे से लाउडिस्पीकर पर गाना आ रहा था:

मारे गये गुल्फ़ाम, अजी हाँ मारे गये गुल्फाम!
उल्फ़त भी रास ना आई, अजी हाँ मारे गये गुल्फ़ाम!

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

हार की जीत की हार


बचपन में एगो कहानी पढ़े थे. अब हम कोनो अनोखा बच्चा त थे नहीं, आपलोग भी बच्चा रहे होंगे अऊर ओही कहानी आप भी पढ़े होंगे. कहानी था श्री सुदर्शन का ‘हार की जीत’. एतना ब्यौहारिक कहानी कि आज समाज से सम्बेदना मर जाने के बाद भी ऊ कहानी ओतने प्रासंगिक मालूम देता है. एगो डाकू, एगो साधु से भिखारी अऊर लाचार का भेस बनाकर उनका घोड़ा चोरा लेता है. साधु बाबा जाते-जाते उससे एही कहते हैं कि ई घटना का जिकिर तुम किसी से मत करना, नहीं त लोग का भरोसा गरीब लाचार पर से उठ जाएगा. डाकू का हिरदय परिबर्तन होता है अऊर ऊ चोराया हुआ घोड़ा वापस कर देता है. साथ में दू बूँद जिन्दगी का भी छोड़ जाता है – आँख का आँसू!

तीन-चार साल पहिले जब ब्लॉग के दुनिया में बड़े अरमान से पहिला कदम रक्खे थे, तब जो लोग का लिखना अच्छा लगता था, उनका अस्थान हमरे लिये कोनो सेलेब्रिटी से कम नहीं होता था. जइसे एगो बच्चा को साइकिल चलाना आ जाए, त ऊ घर के सामने वाली चाची के एहाँ भी साइकिले से जाता है, ओइसहिं जिसके ब्लॉग पर फोन नम्बर मिल जाता था उनसे बतियाने का भी मन करता था अऊर बात होने पर लगता था कि अमिताभ बच्चन से बतियाकर आए हैं.

एही बीच तनी खेल का नियम भी समझ में आने लगा अऊर ऊ सेर है न
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नये मिजाज़ का शहर है, ज़रा फासले से मिला करो!
का मतलब भी बुझाने लगा. बहुत सा लोग का असलियत भी समझ में आया. अऊर आखिर में हम भी ओही सतरंज का एगो मोहरा बन गये. फरक बस एतना था कि हमरा बिसात अपना था अऊर गेम का रूल भी. लोग बेनामी-फेनामी कहते-कहते नाम से जानने लगा अऊर धीरे-धीरे पहचान बनता चला गया. कोसिस एही किये कि हमको हमेसा ई याद रहे कि आदमी जब चढता है त सीढी से अऊर जब उतरता है त टप्प से लिफ्ट से नीचे आ जाता है.

कुछ लोग हमको बहुत सम्मान दिया अऊर कुछ लोग को हम बहुत सम्मान दिये. जिनको हम सम्मान दिये उनसे मिलने, बतियाने का लालसा तब भी रहता था अब भी रहता है. सतीश सक्सेना जी, पण्डित अरविन्द मिश्र, जनाब अली सैयद साहब, अनूप शुक्ल, निशांत मिश्र, संजय अनेजा, अनुराग जी... एहाँ तक कि समीर लाल जी, मनोज कुमार जी, अऊर बहुत सा लोग. स्वप्निल से पहले बतियाना अऊर बाद में मिलना हमरे लिये गोल्डेन मोमेण्ट से कम नहीं था.

ऊ टाइम में महिला ब्लॉगर को लेकर एतना हंगामा चलता था कि कुछ लोग का सम्मान करते हुये भी बतियाते हुये डर लगता था. कभी-कभी चैट पर कोई मिल गया त बतिया लिये. एही दरमियान अब याद नहीं का बात था लेकिन कोई बात को लेकर हमको एगो प्रतिष्ठित महिला ब्लॉगर से बतियाने का जरूरत महसूस हुआ. मगर उनका नम्बर नहीं था. उनके करीबी लोग में से दू लोग हमरे भी बहुत अच्छे दोस्त थे. ऊ दुनो से अलग-अलग चैट पर बतिया रहे थे एक रोज. याद आया त हम पूछ लिये कि अगर उनका नम्बर हो तो मुझे दो. एगो से उत्तर मिला कि हमरे पास नहीं है अऊर दोसरका ब्लॉगर चैट लाइन काट दिहिन. तब हमको लगा कि हम कुछ जादा इमोसनल हो रहे हैं. काहे कि एतना अक्किल त भगवान देबे किये हैं कि समझ जाते कि ऊ लोग बताना नहीं चाह रहा है. बात खतम हो गया अऊर हमारा सम्बन्ध ऊ लोग के साथ ओइसहिं बना रहा.

करीब एक साल के बाद ओही महिला ब्लॉगर का फोन हमको आया. हमारा नम्बर उनको उन्हीं से मिला था जो हमको उनका नम्बर देने से मना कर दिये थे. ऊ पहिला बात हमसे एही बोलीं, “एक रोज आपने हमारा नम्बर माँगा था, तो आपको नहीं मिला था, देखिए आज हम आपका नम्बर लेकर आपको फोन कर रहे हैं. आपको निमंत्रण देना है.” हम गये उनके घर, सबसे मिले अऊर हमारा रिस्ता आज भी बना हुआ है.

अइसहिं दीदी गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी के एगो कबिता का समीच्छा मनोज जी के ब्लॉग पर “आँच” में परकासित हुआ था. मगर ऊ सूचना देने के बाद भी नहीं आईं, त हम सोचे फोन से सूचित कर दें. ऊ दिन डेढ दर्जन कुलश्रेष्ठ का नम्बर नेट से खोजकर निकाले मगर दीदी का नम्बर नहिंए मिला. फिर याद आया उनका “एकलव्य” अऊर बड़े भाई राजेश उत्साही. उनको पूछे त ऊ बोले कि पता लगाकर एस एम एस करते हैं. खैर नम्बर मिला, दीदी से बात हुआ, पता चला कि ऊ सहर से बाहर हैं एही से नहीं देख पाईं. अब त घरेलू रिस्ता हो गया है उनसे.

अइसहिं एगो पुरुस ब्लॉगर, एगो महिला ब्लॉगर से उनका फोन नम्बर माँगा था. ऊ महिला भी अपना नम्बर दे दीं बाबा भारती के तरह उस पर भरोसा करके. उसके बाद एगो लम्बा सिलसिला चला टॉरचर का. ऊ महिला ब्लॉगर का परिबार बिखर गया. घर के अन्दर अदृस्य दीवार खड़ा हो गया. और पिछला दू साल से ई हाल है कि उनका जिन्नगी घर में बिछावन, हस्पताल में आई.सी.यू., नर्स, इंजेक्सन, दवाई, बेहोसी, लाचारी अऊर कमजोरी के बीच पिसकर रह गया है. हम जब फोन करते हैं त उनका एक्के रट रहता है – फ़ोन कर लिया करो बीच बीच में. अच्छा लगता है!

कहाँ आजकल मिलता है डाकू खड़गसिंह जो बाबा भारती के ई कहने पर कि ई बात किसी को मत बताना नहीं तो कोई भी महिला ब्लॉगर कोनो पुरुस ब्लॉगर को अपना फोन नम्बर देने में हजार बार सोचेगी- अपना आँख से दू बूँद आँसुए गिरा देता ताकि ऊ औरत जो हर पल अपना मौत का इंतजार कर रही है, उसको एगो आसान मौत मिल पाता!! 

(परमात्मा उनको लम्बी उम्र दे!)